Friday, 11 May 2012

¤ कलियुग का सागर मंथन ¤

" Halahal Paan Karte Maha Mrityunjay Mahakaal Shiv Shankar "

हाय ! कितना विष व्याप्त है
इस काजल कलुष गरल कलियुग मेँ
सकल विषाद ज़हर व्याप्त है
मानव के अंतर विशाल मेँ
अब तो कुछ करना ही होगा...

हे महाकाल पुनः सागर मंथन करना ही होगा ।

इस दानवयुगी मनोवृत्ति का
विष हलाहल आप को पीना ही होगा
जिस मानव को जन्म दिया है
उसका जीवन जीना होगा...

हे महाकाल पुनः सागर मंथन करना ही होगा ।

एक बार इस वसुंधरा पर आओ
देखो कैसा कठिन समाज है
केवल चीत्कारोँ से भरा
अंबर विशाल रोता ही होगा...

हे महाकाल पुनः सागर मंथन करना ही होगा ।

न जाने मानव मानव का
क्योँ बैरी बन बैठा है
भाई भी भाई से न जाने
क्योँ लोहा ले बैठा है...

कहीँ निक्रिष्ट राजनीति है
कहीँ कोई पुनीत वातसल्य को त्याग
वासना मेँ लिप्त बैठा होगा...

हे महाकाल पुनः सागर मंथन करना ही होगा ।

जाने कहाँ लुप्त हो गयी
वो सतयुगी मार्धुय प्रेरणा
संस्कृति सम्मान विलुप्त हो गया
सकल व्याप्त है मादकता...

ऐसे निक्रिष्ट घृणित असुरोँ का
संहार आप को करना ही होगा...

हे महाकाल पुनः सागर मंथन करना ही होगा ।

नारी का सम्मान नहीँ है
बस केवल अपमान है
व्यभचार और वासना मेँ
लिप्त सकल समाज है...

न जाने कहाँ खो गयी वो सती , सावित्री
अब तो शूर्पणखा का व्यभचार ही
सर्वत्र विद्यमान है...

ऐसी तामसिक मनोवृत्ति का
संहार तो करना ही होगा...

हे महाकाल पुनः सागर मंथन करना ही होगा ।

कुछ करो पिनाकनेय अपने शूल से अब
भेद दो सीना पिशाच का
मादकता और तामसता को
कठोर आघात देना ही होगा...

हे महाकाल पुनः सागर मंथन करना ही होगा ।

हे महाकाल ये धरा ये वसुंधरा
क्षत् - विक्षत् हो जायेगी
अगली सृष्टि की रचना तो क्या होगी
ये मही इस चतुरयुगी का
भार वहन् नहीँ कर पायेगी...

निश्चय ही महाकाल अब कुछ कठिन उद्योग करना ही होगा...

हे महाकाल पुनः सागर मंथन करना ही होगा ।

हाय हृदय फट चुका है
इस कठिन संताप से अब
सागर मंथन से निकले पुण्य पुनीत को
देव नहीँ मानव को देना ही होगा...

तार-तार हो बिखर चुके आर्दश को
पुनः स्थापित करना ही होगा...

हे महाकाल पुनः सागर मंथन करना ही होगा ।
हे महाकाल पुनः सागर मंथन करना ही होगा ।
हे महाकाल पुनः सागर मंथन करना ही होगा ।

॥जय श्री महाकाल ॥

@...सुधीर पाण्डेय...@
 

ॐ॥ स्थापित हो रामराज्य ।।ॐ

" Kanak Bhawan Shri Ayodhya Ji Dham " "Jai Shri Ram "
हे भारत के वीरोँ तुम क्या चाहते हो...

स्थापित हो रामराज्य
या हो जाये भ्रष्टाचार व्याप्त ।

भारत माता को जँजीरोँ मेँ
पुनः जकड़ने कैसे दोगे ,

रोम रोम भारत माता का श्रापेगा तुमको
यदि कुपथ्य भ्रष्ट राज्य स्थापित होने दोगे ।

इस निष्ठुर विषव्याप्त निन्दनीय तंत्र को
अपनी अगली पीढ़ी को कैसे दोगे ।

क्या तुम्हारी पुण्य आत्मा स्वीकार इसे कर पाएगी ,
आगे आने वाले वंशजोँ मेँ ना साख तुम्हारी रह जाएगी ।

पूछेंगे नभ के तारे पूछेँगे वंशज प्यारे
क्या इतिहास तुम्हारा है बतलाओ ,

हमेँ भी इस भरत वँश के वीरोँ का गुणगान सुनाओ ।

तब लज्जा वश शीश तुम्हारा
उनके आगे झुक जायेगा ,

स्वयं तुम्हारा महिष अंतरद्वंद
काल तुम्हेँ खाजायेगा ।

मन ही मन तुम काँप उठोगे
स्वभक्षण के तुम पात्र बनोगे ।

अपने ही तुमको काटेँगे
नित नये नवेले तानोँ से
तुमको वो प्यारे डाटेँगे ।

हे आर्यपुत्र हे भरतवँशियोँ
अभी वक्त हे मेरे प्यारोँ
मेरे भारत के राजदुलारोँ ।

चाहो अभी तो सँभल जाओ
हे अजर अमर सनातन के वीरोँ
धँसो नहीँ इस दलदल में
अतिशीघ्र इससे उबर आओ ।

बहुत हो चुकी यह कुम्भकरणीय निद्रा
अब तो प्यारोँ जग जाओ ,
इस गरल विषपान से
अच्छा होगा
यदि इतिहास को अपने दोहराओ ।

हे आर्यव्रती सनतानोँ शपथ है तुमको
इन फिरंगियोँ को धूल चटाओ ।

अपने अंतरमन मेँ दबी अग्नि ज्वाला को
आज तो प्यारो भड़काओ ।

फूँक दो इनकी काली लंका
दहका दो इनके जुल्मोँ का पतित ये आँगन
हे युवा वीर आज तुम
अपने पावन कदम बढ़ाओ ।

नहीँ तो ऐक दिन फिर
हम गुलाम हो जायेँगे ,

पता नहीँ फिर क्या होगा
कब सुभाष , चन्द्रशेखर और भगत सिँह
पुनः जन्म ले पायेँगे ।

हे आर्यव्रतियोँ आह्वान है तुमसे
इस गरल विष को ना स्वीकार करो ।

भारत माता का सम्मान करो
प्यारोँ भारत का उद्धार करो ।

अपने तन से लिपटे विष भुजंग को
काट समाज से बाहर करो ।

हे भारत के मतवालोँ
माता की आन पे मिटनेँ वालोँ,

आज तुम्हेँ पुकारती है जननी तुम्हारी
उस अबला का कुछ कल्याँण करो ।

रामराज्य को लाना है तो
अपना तुम बलिदान करो
अपना तुम बलिदान करो
अपना तुम बलिदान करो..।

¤ घोर सिँहनादम् जयतु जयतु माँ विश्वभारतिम् ॥

ॐ।। कवि :- सुधीर पाण्डेय ।।ॐ